कोढ़, कुष्ठ (Leprosy) रोग प्रायः संक्रामक माना जाता है। पाश्चात्य सिद्धान्त के अनुसार वैसीलस लैप्रोस नामक एक कीटाणु शरीर में प्रविष्ट होकर स्नायुओं में उलट-फेर कर देता है, जिससे चमड़ी का विवर्ण हो जाना या गांठ उत्पन्न हो जाना आदि विकार प्रकट हो जाते हैं। ” यह रोग लेप्रोसी (Leprosy) कहलाता है।
कोढ़, कुष्ठ (Leprosy) के लक्षण :-
इस रोग की आरम्भिक अवस्था में चमड़ी का वह भाग कुछ-कुछ अप्राकृतिक सा लगने लगता है- नसें थोड़ी फूल सी जाती हैं एवं वह भाग कुछ चेतना हीन हो जाता है। इन स्थितियों का पूर्ण ज्ञान न होने से रोग अन्दर अन्दर फैलता जाता है।
इसके बाद कभी-कभी तापमान बढ़ने लगता है हड्डियों में दर्द होता है, अपचन, शिथिलता, अधिक पसीना आना या न भी आना, बैचेनी, सिर के बाल उड़ना, भौंहों का लुप्त होना आदि हो जाते हैं।
तीसरी अवस्था में शरीर में घाव, उनकी नसों में सुई जैसी चुभन, माथे पर, गालों, नाक या कान पर सिकुड़न और कभी-कभी फूल उठती है। चौथी अवस्था में रोगी भाग चेतना शून्य, शरीर पर लाल दाने एवं अंगुलियों व अंगूठों पर लाल दाने उभर आते हैं। बाद में वे सड़ने व गलने लगते हैं। जख्म ठीक नहीं होने पाते इत्यादि… ।
कोढ़, कुष्ठ (Leprosy) के कारण :-
शरीर के अन्दर की वायु व रक्त जब बहुत दूषित हो जाते हैं तो रक्त साफ करने वाले अंग (यकृत, प्लीहा, फुसफुस, वृक्क आदि) क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। तब अशुद्ध रक्त होने पर शरीर में रोग के कीटाणु पनपने लगते हैं, त्वचा में इतनी शक्ति नहीं होती कि वह इस विष का सामना कर सके। फलस्वरूप प्रभावित भाग पर घाव हो जाते हैं जो कभी ठीक नहीं होते। इस तरह हाथ-पैर सड़ने गलने लगते हैं। शरीर में दूषित रक्त पैदा होने के कई कारण हैं जैसे :-
1. अति व्यायाम, अति धूप सेवन, अति भोजन।
2. अजीर्ण होने पर भी भोजन, विरोधी (बेमेल) भोजन, भोजन के बाद मैथुन करना, जूठा खाना।
3. मलीन वस्त्र पहनना ।
4. अनियमित भोजन करना।
5. उचित व्यायाम एवं प्रकाश व वायु का अभाव होना।
6. पायोरिया का विष भी कुष्ठ रोग के कीटाणु पैदा कर सकता है। इत्यादि … ।
7.आयुर्वेद के मतानुसार सिर्फ सड़ी हुई मछली ही नहीं, बल्कि सड़ा हुआ मांस, अंडे आदि के सेवन से भी रक्त में इस रोग के कीटाणु उत्पन्न होने लायक वातावरण बन जाता है। आयुर्वेद तो इस रोग का प्रमुख कारण कीटाणु नहीं बल्कि त्रिदोष मानता है। अर्थात शरीर में तीन धातुओं का असंतुलित होना ही रोग का कारण है।
कुष्ठ रोग निवारण दिवस पर प्रधानमंत्री का संदेश :-
कोढ़, कुष्ठ रोग (Leprosy) से तात्कालिक आराम के लिए :-
1. एक चम्मच आंवले के चूर्ण की फंकी प्रातः सायं लें।
2. आठ ग्राम हल्दी की फंकी प्रातः सायं लें। हल्दी की गांठ को पत्थर पर जल में घिस कर लगाएं। कुछ दिन में नित्य सेवन से यह रोग ठीक हो सकता है।
3. नीम और चालमोगरा का तेल समान मात्रा में मिला कर कोढ़ पर लगाएं।
4. तुलसी के पत्तों को खाने व कुष्ठ पर मलने से लाभ होता है।
5. नीम के पत्तों का काढ़ा बनाकर ठंडा कर लें और उससे कोढ़ के घावों को धोएं।
6. रात्रि के समय त्रिफला का चूर्ण सेवन करें।
7. हरी और पीली बोतल का सूर्यतप्त जल आधा-आधा भाग मिलाकर दिन में आठ बार आधी-आधी छटांक पीवें।
8. भीगे चने के आध सेर पानी में 1-2 तोला शहद मिला कर नित्य पीना, चने की रोटी और 2 तोला तक शहद खाना, शाम को चने का पानी गरम करके बिना शहद डाले पीना, चने का साग कच्चा या पक्का खाना तथा दो मास तक केवल चने का व्यवहार करना, कुष्ठ रोग में बहुत लाभप्रद है ।
कोढ़, कुष्ठ रोग (Leprosy) से स्थायी मुक्ति के लिए :-
1. प्रातः लगभग 6 बजे पेडू पर सेंक व मिट्टी पट्टी देने के बाद गर्म पानी का एनिमा (कुछ महीनों तक)। आंतें अच्छी तरह साफ हो जाने पर धीरे-धीरे एनिमा का प्रयोग छोड़कर 2-4 गिलास जल पीकर विपरीतकरणी मुद्रा, पाद हस्तासन, शलभासन यथाशक्ति करें। फिर भी शौच न आए तो भुजंगासन, अर्धचक्रासन, धनुर शलभ, रीढ़-संचालन, पवनमुक्तासन आदि करें। इनके साथ फल-सब्जी का प्रयोग करने से शौच आना निश्चित है।
2. शौच के बाद सप्ताह में एक बार, बाद में महीने में 1-2 बार कुंजर क्रिया करें।
3. लगभग 7 बजे ठंडा कटिस्नान (10 मिनट से 30 मिनट तक)।
4. इसके बाद टहलें या सूक्ष्म व्यायाम या सुधार होने या सशक्त होने पर आसन (तान-उत्तानपाद, सर्वांग, उष्ट्रा, भुजंग, शलभ, धनुर, उत्कट, पवनमुक्त, मत्स्य) तथा प्राणायाम- (नाड़ी शोधन, भस्त्रिका, कपालभाति )
5. महाबंध एवं उड्डियान बन्ध किए जाएं।
6. लगभग 8 बजे सप्ताह में 4-5 बार सर्वांग पंकरनान के साथ मिट्टी सूखने तक धूप स्नान और बाद में रगड़-रगड़ कर जलस्नान तथा सप्ताह में 1-2 बार वाष्पस्नान के बाद ठंडा जल स्नान शनिवार को धूप में तैलमालिश
7. लगभग 11 बजे बकरी या गाय का दूध या फलरस या सब्जी सूप या रस या फलाहार या यथाशक्ति कुछ दिन उपवास।
8. 2 बजे दोपहर फलरस या फलाहार सेब, बेल, खरबूजा या उपवास।
9. लगभग 4.30 बजे मेहन स्नान या रीढ़ स्नान (10-30 मिनट)।
10. लगभग सायं 5 बजे उपरोक्त नं. 5 के आसन-प्राणायाम करें।
11. लगभग 7 बजे सायं भोजन चोकर समेत आटे की रोटी, अंकुरित अनाज, कच्ची व उबली सब्जी (करेला, तेंदू, तोरई, परवल, धानकुनी आदि कड़वी सब्जी) काफी मात्रा में लें। या रसाहार या कुछ दिन उपवास।
12. लगभग 9 बजे सोने से पहले इष्टदेव को याद करके मन में विचार लाएं कि तुम पहले से ठीक हो रहे हो।
नोट :- 1. उपरोक्त कार्यक्रम रोगी की अवस्था अनुसार अदल-बदल कर भी किया जा सकता है। 2. रात को रोगी भाग व पेडू पर मिट्टी पट्टी लगाकर सो जाएं। 3. श्वेत विष (नमक, चीनी, मैदा), आमिष व मादक एवं उत्तेजक पदार्थ वर्जित हैं। 4. शाक सब्जी में हल्दी डालें। 5. खुजली होने पर हरी बोतल के सूर्यतप्त नारियल तेल में नींबू रस मिलाकर लगाएं।
6. गुड़, मूली, खटाई, उड़द की दाल, बहुत धूप व स्त्री प्रसंग आदि निषेध हैं। 7. काजू के ऊपर के छिलकों से बनाया हुआ तेल लगाएं। 8. गूलर के फल और छाल को गर्म जल में उबाल कर इस गर्म जल से नहाएं। 9 ब्रह्मी व बेल पत्र मिला पंकस्नान 4-5 दिन लाभदायक है। 10. सूर्यतप्त नारियल तेल में ब्रह्मी मिला कर शनिवार तेल मालिश। 11. चना, बाजरा आदि खाएं।