शांत मन, निरोगी काया को लेकर बहुत से प्रयोग हो चुके है विशेषज्ञों, अनुसंधानों, प्रयोगों, परीक्षणों आदि से सिद्ध हो चुका है कि क्रोध, चिन्ता, भय, घृणा, ईर्ष्या, अधिक निराशा, वहम, शोक, लोभ, तनाव, हीनता आदि भावनाओं-आवेगों से कब्ज संधिवात, चर्म रोग, पतले दस्त, स्नायु दौर्बल्य, बांझपन, दमा, मधुमेह, उदर रोग, रक्तचाप, हृदय रोग, कैंसर, बहुमूत्र रोग, आदि अनेक रोग हो जाते हैं और इन्हें मनोजनित रोग (Psychosomatic) मनोकायिक रोग मानते हैं। सभी रोगों का मूल कारण या बीज मन में ही रहता है “जब शांत मन की भावनाएं मलीन होती हैं तो शरीर भी रोगी हो जाता है।”
“डा. ए.जे. कान्टर के अनुसार “जिन-जिन रोगों की चिकित्सा करते हैं. इनमें से लगभग 75 प्रतिशत मनोजनित होते हैं इन रोगों को बिल्कुल दूर करने के लिए कोई दवाई नहीं है, जो है वह केवल अस्थाई लाभ देती है।”
जापानी डा. टैनीगूची के मतानुसार “शरीर तो मन का प्रतिबिम्ब है। शरीर पर जो लक्षण प्रकट होते हैं, उनका कारण मन में स्थित है। जब अशान्ति, शिकायतों, घृणा, ईर्ष्या, क्रोध आदि मानसिक भावनाओं, आवेगों से मन में सूजन पैदा होती है तो वही सूजन या गांठ शरीर के मांस में प्रकट होती है। जब पश्चाताप, दूसरों के प्रति कृतज्ञता, प्रेम, दया, तथा ईश्वरोपासना आदि से मानसिक आवेग दूर हो जाते हैं तो शरीर का कैंसर भी लुप्त हो जाता है।” “मन की गन्दगी शरीर की गन्दगी से ज्यादा खतरनाक है।- (गांधीजी)
क्रोध :- क्रोध करने वाले के रक्त में विष उत्पन्न होता है। एक अमेरिकन डाक्टर ने प्रयोग करके देखा कि क्रोध करने वाले का खून छोटे-छोटे जन्तुओं पर पिचकारी से चढ़ाया गया और वे तुरन्त मर गए। क्रोध में माता का दूध भी विषैला बन जाता है। नींद भी नहीं आती। हमेशा चिडचिड़ी रहने वाली मां का दूध पीने से बच्चे को जीर्ण रोग हो गए।
वैज्ञानिकों ने बिल्ली पर प्रयोग करके सिद्ध किया कि बिल्ली को भोजन करते समय उसके सामने कुत्ता आने पर क्रोध के कारण उसका पाचक रस निकलना बंद हो गया। न्यूयार्क में वैज्ञानिकों ने चूहे के शरीर में क्रोध से उत्पन्न विषाक्ता का परीक्षण किया था। उन्होंने देखा कि 22 मिनट बाद उसने अपने को काटना शुरू किया और 2 घंटे के अन्दर पैर पटक-पटक कर मर गया। डा. जे. एस्टर के मतानुसार 15 मिनट क्रोध के रहने से मनुष्य की जितनी शक्ति नष्ट होती है
उससे वह 9 घन्टे कड़ी मेहनत कर सकता है।” क्रोध से मृत्यु भी हो सकती है। क्रोध से जवानी में ही बुढ़ापा आने लगता है। क्रोध से आंखों में लाल डोरे तन जाते हैं, शरीर कांपने लगता है, हृदय की धड़कन बढ़ जाती है आदि क्रोध से शरीर में ऐसी गर्मी पैदा होती है कि शरीर उससे अंदर ही अंदर जल-झुलस सा जाता है। क्रोध वह अग्नि है जो अपने शुत्र की अपेक्षा क्रोध करने वाले को ही अधिक जलाती है। क्रोध से वायु रोग, हृदय रोग, नाड़ी रोग, एसेडिटी, अल्सर, अपच, अनिद्रा आदि अनेक रोग हो जाते हैं।
डर :- दूसरे रोगियों को देख कर कई बार डर के कारण ही लोगों को हैजा, पतले दस्त, चर्म रोग आदि हो जाते हैं। डर से शरीर की रोग-प्रतिरोध क्षमता घट जाती है, परन्तु रोग को तुच्छ समझने से रोग अपने-आप कम हो जाता है। डर का असर रक्त संचार पर वैसा ही पड़ता है जैसा कि पानी पर बहुत ज्यादा ठंड का ।
जिस तरह बहुत ठंड से पानी जम जाता है, उसी तरह डर से खून जम जाता है, और शरीर के अन्दर उसका आना-जाना ठीक-ठीक नहीं हो पाता। डर से हृदय धड़कने लगता है, दम फूल जाता है, रक्त शुद्धि का कार्य ढीला पड़ने पर शरीर में दूषित तत्व बढ़ते हैं। कई बार डर से मृत्यु तक होती है। डा. डयूक के मतानुसार- ‘भय और चिन्ता से लोग पागल हो जाते हैं. उनके दांत में कीड़े पड़ जाते हैं और बाल सफेद हो जाते हैं।”
घृणा :- घृणा क्रोध का जीर्ण रूप कह सकते हैं। किसी काल्पनिक शत्रु से लड़ने में अपनी स्नायुविक शक्ति का विनाश करना कहां की अक्लमंदी है? पता नहीं कितनी मानव शक्ति इस प्रकार नष्ट हो जाती है। किसी ने आप का अपमान किया है या आप के प्रति अन्याय किया है, आप रातभर जाग कर उससे बदला लेने के उपाय सोचते रहते हैं।
इस प्रकार जो मानसिक शक्ति खर्च होती है उससे शरीर और मन की हानि तो होती है, स्नायुविक शक्ति का भी अकथनीय दुरुपयोग होता है जो व्यक्ति दिन रात अपने तथाकथित शत्रु से बदला लेने की योजना बनाता रहता है, वह कभी सफल नहीं होता।
घृणाशील व्यक्ति का मन इतना विषाक्त हो जाता है कि वह अपने शुभचिन्तकों तक को भी आघात पहुंचाने लगता है। वह अन्दर ही अन्दर कुढ़ता रहता है। जिससे और तनाव उत्पन्न होता है। तनाव से सारे शरीर पर दुष्प्रभाव पड़ता है इत्यादि ।
रात्रि जागरण तथा मन को पर्याप्त विश्राम न देने के कारण :- अनिद्रा, दिल की धड़कन, पागलपन, मानसिक विकार, पाचन खराब आदि अनेक रोग होते हैं।
जो प्रगतिशील नहीं है :- वह गठिया रोग का शिकार हो जाता है।
जो दूसरों की बहुत बुराई सोचता है :- उसे खून की बीमारी हो सकती है।
जो अपने कर्त्तव्यों के प्रति लापरवाह :- रहते हैं और अपना कार्य ईमानदारी से नहीं करते उन्हें ही मानसिक उथल-पुथल सताती है।
ईर्ष्या :- द्वेष करने से अपना ही रक्त जलता है- हीनता की भावना व ग्लानि का विकार मन का क्षयी रोग (यक्ष्मा) है. इसका दुष्प्रभाव शरीर पर पड़ता है।
लोभ व अहंकार :- भी अनेक रोग पैदा करते हैं। प्रो. एलमर गेट्स के मतानुसार – “काम, क्रोध, लोभ, मत्सर आदि विकारों का शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इनसे खून दूषित होता है प्रसन्नता तथा दूसरे उच्च विचार ज्यादा जीवन शक्ति उत्पन्न करते हैं।”
रामकृष्ण परमहंस के मतानुसार :- “जो अपने आपको पापी पापी सोचता है वह पापी हो जाता है जो अपने आपको महात्मा सोचता है यह महात्मा बन जाता है। अपने को असमर्थ व दुर्बल सोचने पर मनुष्य वैसा ही बन जाता है।”
उपचार संकेत :- “जैसा अन्न, वैसा मन जैसा मन, वैसा तन:- अन्न चिकित्सा
(क) सात्विक अन्न से सात्विक विचार बनते हैं। इसे खा कर निरोगी दीर्घायु प्राप्त होती है।
(ख) ग्वालियर के कैदियों पर शोध से 250 मासांहारी 85 प्रतिशत चिड़चिड़े व झगड़ालू स्वभाव के और 150 शाकाहारी कैदी 90 प्रतिशत शांत व खुश स्वभाव वाले थे।
(ग) चिड़ियाघर में एक बंदर को मांस खिलाकर पाया गया कि वह क्रूर और हिंसात्मक स्वभाव का बन गया।
(घ) शरीर को निरोगी रखने के लिए 80 प्रतिशत क्षारीय आहार और 20 प्रतिशत अम्लीय आहार देना चाहिए। हरी साग-सब्जी और फल क्षारीय और अनाज, दालें, गिरीदार, सूखे मेवे, मादक द्रव्य, तले भुने खाद्य, मांस, मछली, अंडा, चीनी आदि अम्लीय आहार हैं।
(ङ) मैदा, नमक व चीनी भी बहुत कम मात्रा में इस्तेमाल करनी चाहिए।
1. रोगी होने पर अम्लीय आहार पूर्ण रूप से त्याग कर केवल क्षारीय आहार ही लें। रोग ठीक होने पर धीरे-धीरे प्रोटीन, श्वेतसार, वसा की अल्प मात्रा बढ़ाई जाए, परन्तु मादक द्रव्य, तले-भुने खाद्य मांस, मछली, अंडा, आदि अन्य अम्लीय आहार सदा के लिए तो बिल्कुल त्याग देने ही जरूरी हैं, तभी तो आप निरोगता प्राप्त कर सकते हैं।
2. योग चिकित्सा :- यम, नियम, आसन, प्राणायाम आदि मनोकायिक – रोगों को दूर करने में रामबाण है।
3. ध्यान चिकित्सा :- प्रेक्षाध्यान, विपश्यना, त्राटक, योगनिद्रा, आदि अनेक विधियां हैं, परन्तु सरलतम विधि है-आंखें बंद करके नासिकाओं से सांस के आने-जाने पर ध्यान लगाना ।
4. हास्य चिकित्सा :- तालियां बजाकर जोर से हंसें और यथाशक्ति नाचें कूदें। “हंसी दिल की गांठें खोलती है” (गांधीजी) “Laugh away worries.” ” Laugh & grow fat.”
5. विचार-शक्ति चिकित्सा :- सकारात्मक, रचनात्मक व आशावादी विचार (दृढ़ संकल्प) रोग मुक्त कर सकते हैं।
6. मन बहलाव चिकित्सा :- रुचि अनुसार लिखने-पढ़ने, नृत्य, चित्रकला, – संगीत, बागवानी, सामाजिक कार्यों में अपने को व्यस्त रखें।
7. आध्यात्मिक चिकित्सा :- प्रार्थना, भजन-कीर्तन, मंत्र जाप, परम इष्ट का ध्यान आदि रोगी को ठीक करते पाए गए हैं।
8. प्राकृतिक चिकित्सा :- मनोकायिक रोगों को दूर करने के लिए प्राकृतिक चिकित्सा बहुत सहायक सिद्ध हो रही है।
9. सन्तुलन चिकित्सा :- खाने-पीने, सोने-जागने, श्रम-विश्राम, व्यायाम-शिथिलता, काम-काज आदि में सन्तुलन रखने से ही निरोगी मन व शरीर सम्भव हो सकता है।
10. आत्म दर्शन चिकित्सा :- रात को सोने से पहले और प्रातः जागने पर ये विचार दुहराते जाएं कुछ दिन “मैं स्वस्थ हो जाऊं”। कुछ दिन बाद दुहराएं- मैं स्वस्थ हो रहा हूं।” अन्त में ये विचार जीवन में दुहराते रहें- “मैं स्वस्थ हूं, कोई रोग नहीं” इत्यादि
सर राबर्ट वाल पोल की तरह चिन्ताओं को कोट के साथ खूंटी पर लटका दें और गांधीजी की तरह चिन्ताओं की गठड़ी को परमात्मा के हवाले करके रात को नींद का विचार मन में लाएं। ये स्वकल्प भावनाएं रोग मुक्ति के अचूक सूत्र हैं इत्यादि ।
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